प्रस्तावना: यह मेरे इस ब्लॉग पर प्रकाशित पहली हिन्दी रचना है। मैँ आशा करता हूँ कि आप सबको यह छोटी-सी कहानी अच्छी लगेगी। व्याकरण में त्रुटियों के लिये मैँ क्षमाप्रार्थी हूँ ।
राजन शर्मा की दिनचर्या अत्यंत सामान्य थी। प्रतिदिन वे अपने घासबगान स्थित घर से नौ बजे निकलते और मौलाली स्थित अपने दफ्तर पहुँचते। आठ घण्टे काम करने के बाद वे थके मादे घर जाने की बस पकड़ते।
दफ्तर जाने के रास्ते वे रोज़ चौराहे पर एक बूढ़े भिखारी को देखते। भिखारी आते जाते लोगों से पैसों के लिए इशारे करता। राजन रोज़ सोचते कि वे उसे कुछ देंगे, पर यह चिंता रहती थी कि वह उनका दिया हुआ खाना स्वीकार करेगा या नहीं।
दफ्तर में घुसते ही राजन की भेंट उनके सहकर्मी मुकुल से हुई।
“क्यों राजन साहब, आज भी वह भिखारी आपके मन में है?”
“क्या करें! मैं भीख में पैसे नहीं देना चाहता हूँ पर उस भूखे गरीब को पैसों की जगह कुछ और देने के बारे में सोचते ही डर लगता है कि वह मुझे झिड़क न दे।”
“आपकी भी अजीब चिंता है। खैर, यह तो आप पर ही है कि आप अपने पैसे को कैसे खर्च करें।”
लंच के वक्त अचानक मुकुल फिर राजन के पास आए और बोले,
“आपका घर हावड़ा में है न?”
“हाँ।”
“बढ़िया! असल में मुझे आज अपने हावड़ा में रहने वाले मामा जी के घर जाना है। मैं किसी को खोज रहा था जिसका घर वहाँ है। तभी बैरा ने बताया कि आप का घर वहाँ है। मैं आपके साथ ही जाऊंगा।”
“ठीक है। पर मेरा कुछ काम बाकी है और उसे पूरा करने में थोड़ी देर हो जायेगी। आपको घर पहुँचने की कोई जल्दी तो नहीं है न?”
“नहीं। जब तक आप काम करके आएँगे तब तक मैं निचले माले की कैन्टीन में बैठा रहूँगा।”
शाम के सवा सात बज रहे थे। राजन को छोड़ बाकी सारे कर्मचारी जा चुके थे। काम पूरा करके वे बड़ी हड़बड़ाहट के साथ अपनी अटैची लिए, दफ़्तर के दरवाजे पर ताला लगाए और कैन्टीन की तरफ़ भागे। वहाँ जा कर उन्होंने देखा कि वहाँ कोई नहीं था। राजन ने मुकुल को फ़ोन लगाया,
“कहाँ हैं आप?”
“माफ़ कीजिए राजन साहब; मैं बस स्टैंड पर खड़ा था और आपका इन्तज़ार कर रहा था कि तभी मरी अपने कॉलेज के मित्र से भेंट हो गई। संयोग से उसका घर भी हावड़ा में ही है, तो मैं उसके साथ बस में चला गया।”
“कोई बात नहीं।”
फ़ोन काटने के बाद राजन का सारा उत्साह हवा हो गया। रोज़ अकेले घर जाने का सफ़र कर-कर के वे ऊब चुके थे। मुकुल के साथ सफर करने के अवसर को वे खोना नहीं चाहते थे। मन-ही-मन सोच लिया था कि सफ़र के दौरान खूब बातें करेंगे…पर सारी योजना विफल हो गई। निराश वे स्वयं बस स्टैंड के लिए प्रस्थान किए।
आसपास की अधिकतर दुकानें व दफ्त़र बंद हो चुके थे, मात्र उनके प्रकाश-युक्त विज्ञापन चालू थे, जिनकी रोशनी अंधेरी सड़क पर पड़ रही थी। राजन जब स्टैंड तक पहुँचे तो उन्होंने देखा वही भिखारी अभी भी वहीं खड़ा था। राजन दृढ़ता के साथ पास की दुकान पर गया जो अभी भी खुली थी। वहाँ से उन्होंने एक बिस्कुट का पैकेट खरीदा, उसे खोला, उसमें से एक निकाला और बाकी भिखारी की तरफ़ बढ़ा दिए। भिखारी ने काँपते हाथों से पैकेट लिया और बिस्कुट खाने लगा। हावड़ा की तरफ़ जाने वाली बस भी उसी वक्त आई और राजन उसमें स्फूर्ति के साथ चढ़ गए।
This is so quietly touching. What made him approach his fear when he was struck with loneliness? what is the reason behind the small events of courage we display sometimes, after suffering small events of disappointment, loneliness or pain? It is beyond our understanding. Maybe we realise if only for a minute that there is nothing to lose, really.
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Yes…and at that moment all our apprehensions are lost and we just go for it.
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Bahut sahi farmaya!!!
Choti choti cheezon me hi aksar bade sukh hote hai!!!
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badhiyaa, likhte rahiye😊
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आपका धन्यवाद।
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Waw bhut khoob😃
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आपका धन्यवाद 🙂
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